BA Semester-5 Paper-2 Sanskrit - Hindi book by - Saral Prshnottar Group - बीए सेमेस्टर-5 पेपर-2 संस्कृत व्याकरण एवं भाषा-विज्ञान - सरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-2 संस्कृत व्याकरण एवं भाषा-विज्ञान

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :224
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2802
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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-2 संस्कृत व्याकरण एवं भाषा-विज्ञान - सरल प्रश्नोत्तर


सम्प्रदान कारकः चतुर्थी विभक्तिः

१. कर्मण यमभिप्रैति स सम्प्रदानम्।

दानाय कर्मणा यमाभिप्रैति स सम्प्रदानम्
अथवा
सम्प्रदान संज्ञा विधायकं सूत्रस्य सोदाहरणं व्याख्या कुरु

अर्थ - दान क्रिया के कर्मक द्वारा कर्त्ता जिसको सन्तुष्ट करना चाहता है उसकी सम्प्रदान संज्ञा होती है।

भाष्यकार ने सम्प्रदान का अर्थ इस प्रकार बताया है- 'सम्यक् प्रदीयतेऽस्मै तत्सम्प्रदानम्' अर्थात् जिसको कोई वस्तु सदा के लिए दी जाय। इस प्रकार दाता का उस वस्तु पर से अधिकार समाप्त हो जाता है।

उदाहरण - 'राजा विप्राय गां ददाति' (राजा विप्र को गाय देता है) का आशय है कि राजा सदा के लिये ब्राह्मण को गाय देता है। गाय पर राजा का अधिकार नहीं रह जाता अपितु विप्र ही गाय का स्वामी हो जाता है। किन्तु 'रजकस्य वस्त्रं ददाति' (वह धोबी को कपड़ा देता है) का आशय है कि रजक को कपड़ा तो दे दिया जाता है किन्तु वह कपड़े का स्वामी नही होता। उसे तो कपड़े धोने के लिए मिले हैं, धोने के बाद कपड़ों को लौटना पड़ता है। अतः रजक की सम्प्रदान संज्ञा नहीं होती।

२. चतुर्थी सम्प्रदाने।

विप्रायगां ददाति। अनभिहित इत्येव। दीपतेऽस्मै दानीयो विप्रः।
अथवा
चतुर्थी सम्प्रदाने सूत्र की व्याख्या कीजिए।

अर्थ - अनभिहित सम्प्रदान कारक में चतुर्थी विभक्ति होती है।

उदाहरण - विप्राय गां ददाति (वह ब्राह्मण को गाय देता है) - यहाँ कर्त्ता दान - क्रिया के कर्म 'गौ' के द्वारा 'विप्र' का अभिप्राय सिद्ध करता है अतः 'कर्मणा यमभिप्रैति स सम्प्रदानम्' सूत्र से उसकी सम्प्रदान संज्ञा हुई और 'चतुर्थी सम्प्रदाने' से उसमें चतुर्थी विभक्ति प्रयुक्त हुई।

दनित्य: विप्रः (इस विप्र को दिया जाता है) यहाँ 'कृत्यल्युटो बहुलम्' सूत्र से दा धातु से सम्प्रदान अर्थ में अनीयर, प्रत्यय लगकर 'दानीयः' पद निष्पन्न हुआ है। अतः सम्प्रदान के अभिहित होने के कारण विप्र में 'प्रातिपदिकार्थमात्र' में प्रथमा विभक्ति हुई।

३. क्रियया यमभिप्रैति सोऽपि सम्प्रदानम् (वार्तिक)।

पत्ये शेते।

अर्थ - (अकर्मक) क्रिया के द्वारा कर्त्ता जिसको सन्तुष्ट करना चाहता है उसकी भी सम्प्रदान संज्ञा होती है।

उदाहरण - पत्ये शेते (वह पति के लिए शयन करती है) - यहाँ स्त्री के शयन-क्रिया के द्वारा 'पति' का अभिप्राय सिद्ध होने से प्रकृत वार्तिक से उसकी सम्प्रदान संज्ञा हुई और 'चतुर्थी सम्प्रदाने' से उसमें चतुर्थी विभक्ति का प्रयोग हुआ।

४. यजेः कर्मणः करणसञ्ज्ञा सम्प्रदानस्य च कर्मसञ्ज्ञा (वार्तिक)

पशुना रुद्रं यजते। पशुं रुद्राय ददातीत्यर्थः।

अर्थ - यज् धातु के कर्म कारक की करण संज्ञा तथा सम्प्रदान कारक की कर्म कारक संज्ञा होती है।

उदाहरण - पशुना रुद्रं यजते (रुद्र को पशु देता है) में 'यज्' धातु के योग में कर्म (पशु) की करण संज्ञा होती है तथा सम्प्रदान (रुद्र) की कर्म संज्ञा हो जाती है। इस प्रकार यहाँ द्वितीया के स्थान पर तृतीया विभक्ति एवं चतुर्थी के स्थान पर द्वितीया विभक्ति हुई है। वैदिक वाक्य होने के कारण 'व्यत्ययो बहुलम्' इस सूत्र से भी उपरोक्त कार्य सम्भव है।

५. रुच्यर्थानां प्रीयमाणः।

रुच्यर्थानां धातूनां प्रयोगे प्रीयमाणोऽर्थः सम्प्रदानं स्यात्। हरये रोचते भक्तिः। अन्यकर्तृकोऽभिलाषो रुचिः। हरि निष्ठप्रीतेर्भक्तिः कर्त्री। प्रीयमाणः किम्? देवदत्ताय रोचते मोदकः पथि।

अर्थ - रुच्यर्थ अर्थात् अभिलाषार्थक धातुओं के प्रयोग में प्रीयमाण (प्रसन्न होने वाले) व्यक्ति की सम्प्रदान संज्ञा होती है।

उदाहरण - हरते रोचते भक्तिः (भक्ति हरि को अच्छी लगती है) यहाँ रुच् धातु के योग में प्रसन्न होने वाले 'हरि' की प्रकृत सूत्र से सम्प्रदान संज्ञा हुई और 'चतुर्थी सम्प्रदाने' में उसमें चतुर्थी विभक्ति का प्रयोग हुआ।

रुच् धातु का अर्थ है - अन्यकर्तृक अभिलाष' अर्थात् प्रीति के आश्रय से भिन्न जो कर्त्ता उसकी प्रीति को रुचि कहते हैं। प्रस्तुत उदाहरण में प्रीति का आशय है 'हरि' और कर्त्ता है 'भक्ति'। सूत्र में 'प्रीयमाण:' पद का प्रयोग क्यों? ताकि रुच्यर्थक धातुओं के योग में प्रीयमाण की ही सम्प्रदान संज्ञा हो, अन्य की नहीं। यथा- देवदत्ताय रोचते मोदकः पथि (देवदत्त को रात्रि में मोदक अच्छा लगता है) यहाँ 'प्रीयमाण' के ग्रहण से 'देवदत्त' की ही सम्प्रदान संज्ञा होती है, पथि की नहीं। 'पथि' के अधिकरण कारक होने के कारण उसमें सप्तमी विभक्ति हुई।

६. श्लाघहनुस्थाशयां ज्ञीरस्यमानः।

एषां प्रयोगे बोधपितुमिष्टः सम्प्रदानं स्यात्। गोपीस्मरात् कृष्णाय श्लाघते हनुते शपते वा। ज्ञीरस्यमानः किम्? देवदत्ताय श्लाघते पथि।

अर्थ - श्लाघ्, हनुङ्, स्था, शपू इन धातुओं के प्रयोग में जो समझाये जाने वाले के रूप में अभिप्रेत हो उसको सम्प्रदान संज्ञा होती है।

उदाहरण - गोपी स्मरात् कृष्णाय श्लाघते (गोपी काम भाव से कृष्ण की स्तुति कृष्ण को जानने की इच्छा से करती है) - यहाँ श्लाघ धातु के योग में 'कृष्णा' ज्ञीरस्यमान (जनाए जाने की इच्छा से करती है) अर्थात् गोपी कृष्ण को अपना अनुराग जनाना चाहती है अतः प्रकृत सूत्र से उसकी सम्प्रदान संज्ञा हुई और 'चतुर्थी सम्प्रदाने' से उसमें चतुर्थी विभक्ति का प्रयोग हुआ।

इसी प्रकार गोपी स्मरात् कृष्णाय नुते (गोपी काम भाव से कृष्ण को छिपाती है अर्थात् सपत्नियों से छिपाकर अपना अनुराग कृष्ण को जानना चाहती है) गोपी स्मरात् कृष्णाय तिष्ठते (गोपी काम भाव से कृष्ण को जानने की इच्छा से कृष्ण के लिये ठहरती है)। गोपी स्मरात् कृष्णाय शपते (गोपी काम भाव से कृष्ण को उलाहना देती है) |

७. धारेरुत्तमर्णः।

धारयते प्रयोगे उत्तमर्णउक्तसञ्ज्ञः स्यात्। भक्ताय धारयति मोक्षं हरिः उत्तमर्णः किम्? देवदत्ताय शतं धारयति ग्रामे।

अर्थ - णिजन्त धृ धातु के योग में उत्तमर्ण (त्र+ण देने वाला) की सम्प्रदान संज्ञा होती है।

उदाहरण - भक्ताय धारयति मोक्षं हरिः (हरि भक्त के प्रति मोक्ष का त्र+णी है) - यहाँ णिजन्त धृ धातु (धारयति) के प्रयोग में उत्तमर्ण 'भक्त' की प्रकृत सूत्र से सम्प्रदान हुई और 'चतुर्थी सम्प्रदाने' से उसमें चतुर्थी विभक्ति का प्रयोग हुआ। सूत्र में 'उत्तमर्ण:' पद का प्रयोग क्यों? ताकि उत्तमर्ण से भिन्न को सम्प्रदान संज्ञा न हो। यथा - देवदत्ताय शतं धारयति ग्रामे (देवदत्त गाँव में सौ रुपये त्र+ण देता है)- यहाँ शत अथवा ग्राम की उत्तमर्ण न होने के कारण, सम्प्रदान संज्ञा नहीं होती।

८. स्पृहेरीप्सितः

स्पृहयतेः प्रयोगे इष्टः सम्प्रदानं स्यात्। पुष्पेभ्यः स्पृहयति। ईप्सितः किम्? पुष्पेभ्यो बने स्पृहयति। ईप्सितमात्रे इयं संज्ञा। प्रकर्षविवक्षायां तु परत्वात्कर्मसंज्ञा पुष्पाणि स्पृहयति।

अर्थ - स्पृह् धातु के योग में ईप्सित (जिसे चाहा जाय) पदार्थ की सम्प्रदान संज्ञा होती है।

उदाहरण - पुष्पेभ्यः स्पृध्यति (वह फूलों को चाहता है) - यहाँ वाक्य में स्पृह, धातु प्रयुक्त है अतः ईप्सित 'पुष्प' की प्रकृत सूत्र से सम्प्रदान संज्ञा हुई और चतुर्थी 'सम्प्रदाने' से उसमें चतुर्थी विभक्ति प्रयुक्त हुई।

सूत्र में 'ईप्सितः' पद का प्रयोग क्यों? तकि इष्ट की ही सम्प्रदान संज्ञा हो अन्य कर्ता आदि की नहीं। यथा- पुष्पेभ्यो वे स्पृहयति वह वन में फूल चाहता है - यहाँ ईप्सित कहने से आधारभूत वन की सम्प्रदान संज्ञा नहीं हुई।

ईप्सित अर्थात् सामान्य रूप से इच्छा होने पर ही इच्छित पदार्थ की सम्प्रदान संज्ञा होती है सर्वाधिक इष्ट (ईप्सिततम्) होने पर तो परवर्ती सूत्र 'कर्तुरीप्सिततमं कर्म' संज्ञा ही होगी। यथा, पुष्पाणि स्पृहयति (वह फूलों को चाहता है)।

९. क्रुधद्रहेर्ष्यासूयार्थानां यं प्रति कोपः।

क्रुधाद्यर्थानां प्रयोगे यं प्रति कोपः स उक्तसञ्ज्ञः स्यात्।

अर्थ - क्रुध, द्रुह, ईर्ष्या, असूप धातुओं तथा इनके, तुल्यार्थ धातुओं के प्रयोग में जिसके प्रति कोप किया जाय उसकी सम्प्रदान संज्ञा होती है।

उदाहरण - हरये क्रुध्यति - (वह हरि पर क्रोध करता है) यहाँ वाक्य में क्रुध धातु का योग है और हरि के ऊपर क्रोध किया जा रहा है अतः 'हरि' की प्रकृत सूत्र से सम्प्रदान संज्ञा हुई और 'चतुर्थी सम्प्रदाने' सूत्र से उसमें चतुर्थी विभक्ति हुई।

१०. क्रुधद्रुहोरूप सृष्टयोः कर्म।

सोपसर्गयोरनयार्योगे यं प्रति कोपस्तत्कारकं कर्मसंज्ञं स्यात्। क्रूरमभिक्रुध्यति, अभिद्रुह्यति।

अर्थ -
उपसर्ग से युक्त क्रुध् और दुह् धातुओं के योग में जिसके प्रति कोप किया जाता है उस कारक की कर्म संज्ञा होती है।

उदाहरण - क्रूरम् अभिक्रुध्यति (क्रूर पर क्रोध करता है) में 'अभि' उपसर्ग सहित 'क्रुध ' धातु के योग में 'क्रूर' शब्द की कर्म संज्ञा होगी। यद्यपि यहाँ 'क्रुध दुर्ष्यासूपार्थानां यं प्रति कोप: सूत्र से सम्प्रदान संज्ञा प्राप्त थी किन्तु प्रकृत सूत्र से कर्म संज्ञा की गई है। कर्म कारक होने से द्वितीया विभक्ति हुई है। इसी प्रकार 'क्रूरम् अभिद्रुह्यति' (क्रूर व्यक्ति से द्रोह करता है) इस उदाहरण में भी सम्प्रदान समझना चाहिए।

११. राधीक्ष्योर्यस्य विप्रश्नः।

एतयोः कारकं सम्प्रदानं स्यात्, यदीयो विविधः प्रश्न क्रियते। कृष्णाय राध्यति ईक्षते वा। पृष्टो गर्गः शुभाशुभं पर्यालोचयतीत्पर्थः।

अर्थ - राध् और ईक्षु धातुओं के योग में जिसके बारे में नाना प्रकार के प्रश्न हों उसकी सम्प्रदान संज्ञा होती है।

उदाहरण - कृष्णाय राध्यति इक्षते वा (कृष्ण के भाग्य का पर्यालोचन करता है)। आशय यह है कि कृष्ण के शुभ, अशुभ के बारे में पूछे जाने पर गर्ग त्र+षि के शुभ-शुभ पर विचार करते हैं। यहाँ वाक्य में राधू और ईक्ष् धातु प्रयुक्त है और कृष्ण के विषय में प्रश्न पूछा जा रहा है अतः प्रकृत सूत्र से 'कृष्ण' की सम्प्रदान संज्ञा हुई और 'चतुर्थी सम्प्रदाने' से चतुर्थी विभक्ति हुई।

१२. प्रत्याङ्भ्यां श्रुवः पूर्वस्य कर्त्ता।

आभ्यां परस्य शृणोतेर्योगे पूर्वस्य प्रवर्तनारूपस्य व्यापारस्य कर्ता सम्प्रदानं स्यात्। विप्राय गां प्रतिश्रृणोति आश्रृणोति वा। विप्रेण मह्यं देहीति प्रवर्तितस्तत्प्रतिजानीतेइत्यर्थ।

अर्थ - प्रति और आ उपसर्ग पूर्वक श्रु (अर्थात् प्रतिज्ञार्थक, प्रतिश्रु और आश्रु) धातु के योग में पूर्व क्रिया (याचनादि क्रिया) के कर्त्ता की सम्प्रदान संज्ञा होती है।

उदाहरण - विप्राय गां प्रतिभूणोति आशृणोति वा (ब्राह्मण को गाय देने की प्रतिज्ञा करता है) - यहाँ पहले विप्र गाय माँगता है अर्थात् विप्र याचन-क्रिया का कर्ता है, पश्चात् यजमान विप्र को गाय देने की प्रतिज्ञा करता है। अतः विप्र की पूर्व क्रिया या कर्त्ता होने के कारण, प्रकृत सूत्र से सम्प्रदान संज्ञा हुई और 'चतुर्थी सम्प्रदाने' से उसमें चतुर्थी विभक्ति का प्रयोग हुआ।

१३. अनुप्रतिगृणश्च।

आभ्यां गृणातेः कारकं पूर्वव्यापपभ्य कर्तृभृतमुक्त संज्ञं स्यात्। होत्रेऽनुगृणाति प्रतिगृणाति वा। 

अर्थ - अनु और प्रति उपसर्ग पूर्वक गृ धातु के योग में पूर्व क्रिया (व्यापार) के कर्त्ता की सरम्प्रदान संज्ञा होती है।

उदाहरण - होत्रेऽनुगृणाति प्रतिगृणाति वा (होता को प्रोत्साहित करता है) - यहाँ होता पहले मन्त्र बोल रहा है, बाद में उसे अध्वर्यु प्रोत्साहित करता है। इस प्रकार होता पहली क्रिया (मन्त्र बोलने की क्रिया) का कर्ता है, अतः पूर्व क्रिया का कर्त्ता होने से प्रकृत सूत्र से उसकी सम्प्रदान संज्ञा हुई और 'चतुर्थी सम्प्रदाने' से उसमें चतुर्थी विभक्ति हुई।

१४. परिक्रयणे सम्प्रदानमन्यतरस्याम्।

नियत कालं भूत्वा स्वीकरणं परिक्रयणम्, तस्मिन् साधकतमं कारकं सम्प्रदानसञ्ज्ञं वा स्यात्। शतेन शताय व परिक्रीतः।

अर्थ - परिक्रयण का अभिप्राय यह है कि किसी ने किसी को उधार में रुपया दिया, पर वह उसको लौटा नहीं सकता, तब उसने उसको खरीद लिया अर्थात् जब तक वह रुपया चुका न दे तब तक उसकी नौकरी करे। परिक्रमण में जो साधकतम् (करण कारक) होता है विकल्प से उसकी सम्प्रदान संज्ञा होती है।

उदाहरण - शतेन शताय वा परिक्रीतः (सौ रुपये से खरीदा हुआ) - यहाँ परिक्रमण में 'शत' साधकतम है अतः प्रकृत सूत्र से विकल्प से उसकी सम्प्रदान संज्ञा हुई और 'चतुर्थी सम्प्रदाने' से उसमें चतुर्थी विभक्ति हुई। पक्ष में करण कारक संज्ञा होने से 'कर्तृकरणयोस्तृतीया' से तृतीया विभक्ति हुई।

१५. तादर्थ्ये चतुर्थी वाच्या (वा.)

मुक्तये हरिं भजति।

अर्थ - तादर्थ्य में चतुर्थी विभक्ति होती है। आशय यह है कि जिस प्रयोजन के लिये कोई कार्य किया जाता है उस प्रयोजन में चतुर्थी विभक्ति होती है।

उदाहरण - मुक्तये हरि भजति - (वह मुक्ति के लिए हरि को भजता है) - यहाँ हरि भजन का प्रयोजन मुक्ति की प्राप्ति है, अतः प्रकृत वार्तिक से उसमें चतुर्थी विभक्ति हुई।

१६. क्लृपि सम्पक्षमाने च (वार्तिक)।

भक्तिर्ज्ञानाय कल्पते सम्पद्यते जापते इत्यादि।

अर्थ - क्लृप, अर्थ वाली धातुओं के योग में सम्पध्यमान (उत्पन्न होने वाले) अर्थ में चतुर्थी विभक्ति होती है।

उदाहरण - भक्तिर्ज्ञानाप कल्पते सम्पद्यते जायते (भक्ति ज्ञानि के लिए होती है) यहाँ क्लृष, सम्पद् अथवा जन् धातु के योग में सम्पद्यमान 'ज्ञान' में प्रकृत वार्तिक से चतुर्थी विभक्ति हुई।

१७. उत्पातेन ज्ञापिते च (वा.)

वाताप कपिला विद्युत्।

अर्थ - उत्पात से जो बात जाना जाय उसमें चतुर्थी विभक्ति होती है।

उदाहरण - वाताय कपिला विद्युत (लाल बिजली आँधी की सूचना देती है) - यहाँ लाल बिजली के चमकने रूपी उत्पात से आँधी आने की सूचना मिल रही है अतः वात में चतुर्थी विभक्ति
हुई।

१८. हितयोगे च। (वा.)

अर्थ- 'हित' शब्द के योग में चतुर्थी विभक्ति होती है। अशुभ घटना के सूचक भूत विकार को उत्पात कहते हैं।

उदाहरण - ब्राह्मणायहितम् (ब्राह्मण का हित) में कोई कर्म ब्राह्मण के लिए हितकर है अतः हित शब्द के योग में ब्राह्मण में चतुर्थी विभक्ति हुई।

१९. क्रियार्थोपपदस्य च कर्मणि स्थानिनः।

क्रियार्था क्रिया उपपदं यस्य तस्य स्थ स्थानिनोऽप्रयुज्यमानस्य तुमुनः कर्मणि चतुर्थी स्यात्। फलेभ्यो याति। फलान्याहर्तुं यातीत्यर्थः। नमस्कुर्मो नृसिंहाय। नृसिंहमनुकूल पितुमित्यर्थः। एव, 'स्वयंभुवे नमस्कृत्य' इत्यादावपि।

अर्थ - 'क्रियार्थ क्रिया' जिसके उपपद में है ऐसे अप्रयुज्यमान धातु के कर्म में चतुर्थी विभक्ति होती है। जहाँ कोई क्रिया दूसरी क्रिया के लिए होती है वहाँ पूर्व की क्रिया क्रियार्थक मानी जाती है। भविष्य में होने वाली क्रिया के वाचक तुमुन् प्रत्यय के अर्थ में यहाँ चतुर्थी विभक्ति होती है। जैसे - फलेभ्यः याति (फल के लिए जाता है) में 'जाना क्रिया' लाने की क्रिया के लिए है। अतः अप्रयुज्यमान क्रिया 'आहर्तुम्' के कर्म में चतुर्थी विभक्ति हुई है। इसी प्रकार 'नमस्कुर्मः नृसिंहाय (नृसिंह के अनुकूल बनाने के लिए नमस्कार करते हैं) में 'अनुकूलयितम् यह तुमुन् प्रत्ययान्त क्रिया छिपी है अतः उसके कर्म (नृसिंह) में चतुर्थी विभक्ति हुई है।

२०. तुमर्थाच्च भाववचनात्।

'भाववचनाच्च' इति सूत्रेण यो विहितस्तदन्ताच्यतुर्थी स्यात्। यागाय याति। पुष्टं यातीत्यर्थः।

अर्थ - 'तुमुन' के समान अर्थ वाला भाव वाचक प्रत्यय जिसके अर्थ में हैं ऐसे प्रतिपदिक से चतुर्थी विभक्ति होती है। भाव वाचक तुमुन् प्रत्यय घञ् है अतः घञ् प्रत्ययान्त शब्द से ही चुतर्थी होगी।

उदाहरण - यागाय याति (यज्ञ के लिए जाता है) में 'यज्' (यज्ञ करना) धातु से तुमुन् प्रत्ययान्त क्रिया का अर्थ बताने के लिए भाववाचक घञ् प्रत्ययान्त प्रातिपदिक शब्द 'याग' का प्रयोग करने पर इसमें चतुर्थी विभक्ति हुई है। यहाँ भाववाचक प्रत्ययों का अर्थ 'तुमुन्' प्रत्यय के अर्थ में प्रयुक्त होता है। यहाँ सामान्य भाववाची प्रत्ययों को नहीं लिया गया है बल्कि 'भाववचनाश्च' इस अधिकार सूत्र के अन्तर्गत जिन प्रत्ययों का विधान है उन्हें ही लिया गया है। चूँकि तुमुन् प्रत्यय से तादर्थ्य की प्रतीति हो जाती है अतः इन भाव प्रत्ययों से भी तादर्थ्य की प्रतीति होती है।

२१. नमः स्वस्तिस्वाहास्वधाऽ लंवषड्योगाच्च।

एभिर्योगे चतुर्थी स्यात्। हत्ये नमः। 'उपपदविभक्तेः कारणविभक्तिर्बलीयसी। नमस्करोति देवान्। प्रजाभ्यः स्वस्ति। अग्नये स्वाहा। पितृभ्यः स्वधा।' अलमिति पर्यारत्यर्थग्रहणम्' वार्तिक। तेन दैत्येभ्यो हरिरलं, प्रभुः समर्थः शक्त इत्यादि। प्रभ्वादियोगे षष्ठयापि साधुः। 'तस्मै प्रभवति' स एषां ग्रामणीः' इति निर्देशात्'। तेन 'प्रभुर्बुभूषर्भुवनत्रयस्य' इति सिद्धम्। वषडिन्द्राय। चकारः पुनर्विधानार्थः, तेनाशीर्विवक्षायां परामपि 'चतुर्थी चाशिषि' इति षष्ठीं बाधित्वा चतुर्थ्येव भवति। स्वस्ति गोभ्यो भूयात्।

अथवा
'हरये नमः' पद की व्याख्या कीजिए।
अथवा
अग्नये स्वाहा की सूत्रोल्लेखपूर्वक सिद्धि कीजिए।

अर्थ - नमः, स्वस्ति, स्वाहा, स्वधा, अलम् वषट् इन शब्दों के योग में चतुर्थी विभक्ति होती है।

उदाहरण - हरये नम: (हरि के लिए नमस्कार) में नमः शब्द के योग में 'हरि' में चतुर्थी विभक्ति हुई है। 'उपपदविभक्तेः कारकविभक्तिः बलीयसी' इस परिभाषा सूत्र का अभिप्राय है कि उपपद विभक्ति और कारक विभक्ति दोनों आयी हो तो वहाँ उपपद विभक्ति होगी कारक विभक्ति नहीं। यहाँ नमः शब्द के योग में चतुर्थी उपपद विभक्ति है।

नमस्कारोति देवान् (देवताओं को नमस्कार करता है) में 'नमः' शब्द के योग में प्रकृत सूत्र से चतुर्थी विभक्ति प्राप्त है जो उपपद विभक्ति है। साथ ही 'नमस्करोति' क्रिया का कर्म होने से देव में द्वितीया विभक्ति प्राप्त है जो कारक विभक्ति कहलाती है। यहाँ उपरोक्त परिभाषा सूत्र से उपपद विभक्ति चतुर्थी न होकर कारक विभक्ति द्वितीया हुई है।

प्रजाभ्यः स्वस्ति (प्रजा के लिए कल्याण), अग्नये स्वाहा (अग्नि के लिए स्वाहा) पितृभ्यः स्वधा (पितरों के लिए स्वधा) दैत्येभ्योः हरिः अलम् (दैत्यों के लिए हरि पर्याप्त (समर्थ) हैं; वषडिन्द्राय (इन्द्र को वषट्) इन उदाहरणों में भी क्रमशः स्वस्ति, स्वाहा, स्वधा, अलम्, वषट् के योग में चतुर्थी विभक्ति हुई है। देवताओं के उद्देश्य से कोई पदार्थ देने में 'स्वाहा' शब्द का प्रयोग होता है और पितरों के उद्देश्य से किसी पदार्थ को देने में 'स्वधा' शब्द का प्रयोग होता है।

२२. अन्यकर्मण्यनादरे विभाषाऽ प्राणिषु।

प्राणिवर्जे मन्यतेः कर्मणि चतुर्थी वा स्यास्तिरस्कारे। न त्वां तृणं मन्ये तृणाय वा। श्यना निर्देशान्तानादिकयोगे न। न त्वां तृणं मन्ये। 'अप्राणिष्वि त्यपनीय नौकाकान्नशुक श्रृंगालवर्जेष्वि तिवाच्यम्' (वार्तिक)। तेन 'न त्वां नावं मन्ये' इत्यत्राऽप्राणित्वेऽपि चतुर्थी न। 'न त्वां शुने मन्थे' इत्यत्र प्राणित्वेषि भवत्येव

अर्थ - अनादर अर्थ की प्रतीति होने पर प्राणी को छोड़कर 'न्य' (समझना) धातु के कर्म में विकल्प से चतुर्थी विभक्ति होती है।

उदाहरण - न त्वा तृणं मन्ये तृणाय वा! (मैं तुम्हें तिनका भी नहीं मानता हूँ) यहाँ 'तृण' जो कि प्राणी से भिन्न है में 'न्य' धातु से अनादर अर्थ की प्रतीति हो रही है अतः तृण कर्म है जिसमें प्रकृत सूत्र से चतुर्थी और द्वितीया दोनों ही विभक्तियाँ हो गयी हैं।

२३. गत्यर्थकर्मणि द्वितीयाचतुर्थ्यां चेष्टायामनध्वनि।

अध्वभिन्ने गत्यर्थानां कर्मण्येते स्तश्चेष्टायाम्। ग्रामं ग्रामाय व गच्छति। चेष्टायाम् किम्? मनसा हरि व्रजति। अनध्वनि इति किम्? पन्थानं गच्छति। गन्त्राधिष्ठितेऽध्वन्येवायं निषेधः। यदा तूत्पथात्पन्था एवाक्रमितुमिष्यते तदा चतुर्थी भवत्येव। उत्पथेन पथे गच्छति।

अर्थ - गत्यर्थक (जैसे गम्, इण्, चल, ब्रज, या इत्यादि) धातुओं में कर्म में द्वितीया और चतुर्थी विभक्ति होती है, यदि शारीरिक चेष्टा (क्रिया अथवा व्यापार) करनी पड़े और कर्म मार्ग वाची न हो।

उदाहरण -  ग्रामं ग्रामाय वा गच्छति (वह गाँव जाता है) - यहाँ गम् धातु गत्यर्थक है और उसका कर्म है 'ग्राम' ग्राम मार्गवाची शब्द नहीं है अपितु स्थानवाची है और ग्राम जाने के लिए शारीरिक चेष्टा (हाथ पैर हिलाना - डुलाना) भी करनी पड़ती है अतः कर्म ग्राम में प्रकृत सूत्र से द्वितीया अथवा चतुर्थी विभक्ति हुई।

सूत्र में 'चेष्टायाम्' क्यों कहा? क्योंकि शारीरिक चेष्टा न होने पर गत्यर्थक धातुओं के कर्म में चतुर्थी विभक्ति नहीं होती। यथा मनसा हरिं ब्रजति (वह मन के द्वारा हरि के पास जाता है) - यहाँ हरि के पास जाने के लिए अंग संचालन नहीं करना पड़ता।

सूत्र में 'अनध्वनि' क्यों कहा? क्योंकि गत्यर्थक धातुओं का कार्य मार्गवाची होने पर उसमें चतुर्थी विभक्ति नहीं होती। यथा पन्थानं गच्छति।

यहाँ जो मार्गवाची शब्द में चतुर्थी का निषेध किया है वह गमनकर्ता के द्वारा अधिष्ठित अध्वन् व उसके पर्यायवाची शब्दों के विषय में ही है। अर्थात् मार्गवाची मुख्य शब्दों में ही चतुर्थी विभक्ति का निषेध अभीष्ट है। क्योंकि जब गमनकर्त्ता गलत मार्ग से ही मार्ग पर जाता है तब चतुर्थी विभक्ति होती है। यथा - उत्पथेन पथे गच्छति (वह गलत रास्ते से सही रास्ते पर जाता है)।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- निम्नलिखित क्रियापदों की सूत्र निर्देशपूर्वक सिद्धिकीजिये।
  2. १. भू धातु
  3. २. पा धातु - (पीना) परस्मैपद
  4. ३. गम् (जाना) परस्मैपद
  5. ४. कृ
  6. (ख) सूत्रों की उदाहरण सहित व्याख्या (भ्वादिगणः)
  7. प्रश्न- निम्नलिखित की रूपसिद्धि प्रक्रिया कीजिये।
  8. प्रश्न- निम्नलिखित प्रयोगों की सूत्रानुसार प्रत्यय सिद्ध कीजिए।
  9. प्रश्न- निम्नलिखित नियम निर्देश पूर्वक तद्धित प्रत्यय लिखिए।
  10. प्रश्न- निम्नलिखित का सूत्र निर्देश पूर्वक प्रत्यय लिखिए।
  11. प्रश्न- भिवदेलिमाः सूत्रनिर्देशपूर्वक सिद्ध कीजिए।
  12. प्रश्न- स्तुत्यः सूत्र निर्देशकपूर्वक सिद्ध कीजिये।
  13. प्रश्न- साहदेवः सूत्र निर्देशकपूर्वक सिद्ध कीजिये।
  14. कर्त्ता कारक : प्रथमा विभक्ति - सूत्र व्याख्या एवं सिद्धि
  15. कर्म कारक : द्वितीया विभक्ति
  16. करणः कारकः तृतीया विभक्ति
  17. सम्प्रदान कारकः चतुर्थी विभक्तिः
  18. अपादानकारकः पञ्चमी विभक्ति
  19. सम्बन्धकारकः षष्ठी विभक्ति
  20. अधिकरणकारक : सप्तमी विभक्ति
  21. प्रश्न- समास शब्द का अर्थ एवं इनके भेद बताइए।
  22. प्रश्न- अथ समास और अव्ययीभाव समास की सिद्धि कीजिए।
  23. प्रश्न- द्वितीया विभक्ति (कर्म कारक) पर प्रकाश डालिए।
  24. प्रश्न- द्वन्द्व समास की रूपसिद्धि कीजिए।
  25. प्रश्न- अधिकरण कारक कितने प्रकार का होता है?
  26. प्रश्न- बहुव्रीहि समास की रूपसिद्धि कीजिए।
  27. प्रश्न- "अनेक मन्य पदार्थे" सूत्र की व्याख्या उदाहरण सहित कीजिए।
  28. प्रश्न- तत्पुरुष समास की रूपसिद्धि कीजिए।
  29. प्रश्न- केवल समास किसे कहते हैं?
  30. प्रश्न- अव्ययीभाव समास का परिचय दीजिए।
  31. प्रश्न- तत्पुरुष समास की सोदाहरण व्याख्या कीजिए।
  32. प्रश्न- कर्मधारय समास लक्षण-उदाहरण के साथ स्पष्ट कीजिए।
  33. प्रश्न- द्विगु समास किसे कहते हैं?
  34. प्रश्न- अव्ययीभाव समास किसे कहते हैं?
  35. प्रश्न- द्वन्द्व समास किसे कहते हैं?
  36. प्रश्न- समास में समस्त पद किसे कहते हैं?
  37. प्रश्न- प्रथमा निर्दिष्टं समास उपर्सजनम् सूत्र की सोदाहरण व्याख्या कीजिए।
  38. प्रश्न- तत्पुरुष समास के कितने भेद हैं?
  39. प्रश्न- अव्ययी भाव समास कितने अर्थों में होता है?
  40. प्रश्न- समुच्चय द्वन्द्व' किसे कहते हैं? उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।
  41. प्रश्न- 'अन्वाचय द्वन्द्व' किसे कहते हैं? उदाहरण सहित समझाइये।
  42. प्रश्न- इतरेतर द्वन्द्व किसे कहते हैं? उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।
  43. प्रश्न- समाहार द्वन्द्व किसे कहते हैं? उदाहरणपूर्वक समझाइये |
  44. प्रश्न- निम्नलिखित की नियम निर्देश पूर्वक स्त्री प्रत्यय लिखिए।
  45. प्रश्न- निम्नलिखित की नियम निर्देश पूर्वक स्त्री प्रत्यय लिखिए।
  46. प्रश्न- भाषा की उत्पत्ति के प्रत्यक्ष मार्ग से क्या अभिप्राय है? सोदाहरण विवेचन कीजिए।
  47. प्रश्न- भाषा की परिभाषा देते हुए उसके व्यापक एवं संकुचित रूपों पर विचार प्रकट कीजिए।
  48. प्रश्न- भाषा-विज्ञान की उपयोगिता एवं महत्व की विवेचना कीजिए।
  49. प्रश्न- भाषा-विज्ञान के क्षेत्र का मूल्यांकन कीजिए।
  50. प्रश्न- भाषाओं के आकृतिमूलक वर्गीकरण का आधार क्या है? इस सिद्धान्त के अनुसार भाषाएँ जिन वर्गों में विभक्त की आती हैं उनकी समीक्षा कीजिए।
  51. प्रश्न- आधुनिक भारतीय आर्य भाषाएँ कौन-कौन सी हैं? उनकी प्रमुख विशेषताओं का संक्षेप मेंउल्लेख कीजिए।
  52. प्रश्न- भारतीय आर्य भाषाओं पर एक निबन्ध लिखिए।
  53. प्रश्न- भाषा-विज्ञान की परिभाषा देते हुए उसके स्वरूप पर प्रकाश डालिए।
  54. प्रश्न- भाषा के आकृतिमूलक वर्गीकरण पर प्रकाश डालिए।
  55. प्रश्न- अयोगात्मक भाषाओं का विवेचन कीजिए।
  56. प्रश्न- भाषा को परिभाषित कीजिए।
  57. प्रश्न- भाषा और बोली में अन्तर बताइए।
  58. प्रश्न- मानव जीवन में भाषा के स्थान का निर्धारण कीजिए।
  59. प्रश्न- भाषा-विज्ञान की परिभाषा दीजिए।
  60. प्रश्न- भाषा की उत्पत्ति एवं विकास पर प्रकाश डालिए।
  61. प्रश्न- संस्कृत भाषा के उद्भव एवं विकास पर प्रकाश डालिये।
  62. प्रश्न- संस्कृत साहित्य के इतिहास के उद्देश्य व इसकी समकालीन प्रवृत्तियों पर प्रकाश डालिये।
  63. प्रश्न- ध्वनि परिवर्तन की मुख्य दिशाओं और प्रकारों पर प्रकाश डालिए।
  64. प्रश्न- ध्वनि परिवर्तन के प्रमुख कारणों का उल्लेख करते हुए किसी एक का ध्वनि नियम को सोदाहरण व्याख्या कीजिए।
  65. प्रश्न- भाषा परिवर्तन के कारणों पर प्रकाश डालिए।
  66. प्रश्न- वैदिक भाषा की विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
  67. प्रश्न- वैदिक संस्कृत पर टिप्पणी लिखिए।
  68. प्रश्न- संस्कृत भाषा के स्वरूप के लोक व्यवहार पर प्रकाश डालिए।
  69. प्रश्न- ध्वनि परिवर्तन के कारणों का वर्णन कीजिए।

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